काल सूक्तं
(काल सूक्तं, अथर्वण वॆदं, १९.५३.५४)
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कालॊ अश्वॊ वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षॊ अजरॊ भूरिरॆताः ।
तमा रॊहन्ति कवयॊ विपश्चितस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वाः ॥
पूर्णः कुंभॊ२धि काल अहितस्तं वै पश्यामॊ बहुधा नु संतं ।
स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यज कालं तमाहूः पामेव्यॊ२मन ॥
कालॊ२मूं दिवमनयत काल इमाः पृथिवीरुत ।
कालॆह भूतं भव्यं चॆषितं ह वि तिष्ठतॆ ॥
कालादापः समभवन कालाद बर्मा तपॊ दिशः ।
कालॆनॊ दॆति सूर्यः कालॆ नि विशतॆ पुनः ॥
कालॊ यज्ञं समैरयद्दॆवॆभ्यॊ भागमक्षितं ॥
कालॆ गंधर्वप्सरसः कालॆ लॊकाः पतिष्टिताः ।
कालॆ२यमंगिरा दॆवॊ २थर्वा चाधि तिष्टतः ।
इमं च लॊकं परमं च लॊकं पुण्यांश्च लॊकान विधृतीश्च पुण्याः ।
सर्वांल्लॊकानभिजित्य ब्रह्मणा कालः स ईयतॆ परमॊनु दॆवः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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