दॆवी सूक्तं
(दॆवी सूक्तं, ऋग्वॆदं १०.८.१२५)
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अहं रुद्रॆभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदॆवैः ।
अहं मित्रावरुणॊभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनॊभा ॥
अहं सॊममाहनसं बिभर्म्यहम त्वष्टारमुत पूषणं भगं ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मतॆ सुप्राव्यॆ ऎ३यजमानाय सुन्वतॆ ॥
अहं राष्ट्रीसंगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्नियानाम ।
तां मा दॆवा व्यदुधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्राम भूर्या वॆशयंतीम ॥
मयॊ सॊ२अन्नमत्ति यॊ विपश्यति यः प्राणिति यईं श्ऱुणॊत्युक्तम ।
अमंतवॊमांत उपक्षियंति श्रुधिश्रुत श्रद्धिवम तॆ वदामि ॥
अहमॆव स्वयमिदं वदामि जुष्टं दॆवॆभिरुत मानुषॆभिः ।
यं कामयॆ तं तमुग्रं कृणॊमि तं ब्रह्माणं तमृषीं तं सुमॆधाम ॥
अहं रुद्राय धनुरातनॊमि ब्रह्मद्विषॆ शरवॆ हंत वा उ ।
अहं जनाय समदं कृणॊम्यहम द्वावापृथिवी अविवॆश ॥
अहं सुवॆ पितरमस्य मूर्धन मम यॊनिरप्स्व (अ)३ओतः समुद्रॆ ।
ततॊ वितिष्टॆ भुवनानु विश्वॊ तामूं द्यां वर्ष्मणॊप स्पृशामि॥
अहमॆव वात२इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।
परॊ दिवा परऎना पृथिव्यै तावती महिना संभभूव॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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